२. सर्वहारा और कम्युनिस्ट

समग्र रूप में सर्वहाराओं के साथ कम्युनिस्टों का क्या संबंध है?

कम्युनिस्ट दूसरी मज़दूर पार्टियों के विरुद्ध अपनी कोई अलग पार्टी नहीं बनाते।

समग्र रूप में सर्वहारा के हितों के अलावा और पृथक उनके कोई हित नहीं हैं।

वे सर्वहारा आंदोलन को ख़ास नमूने पर ढालने या विशेष रूप प्रदान करने के लिए अपने कोई संकीर्ण सिद्धांत नहीं स्थापित करते।

कम्युनिस्ट दूसरी मज़दूर पार्टियों से सिर्फ़ इस लिहाज़ से भिन्न हैं: . विभिन्न देशों के सर्वहाराओं के राष्ट्रीय संघर्षों में वे राष्ट्रीयता से सर्वथा निरपेक्षतः समस्त सर्वहारा के सामान्य हितों को इंगित करते और सामने लाते हैं। २. बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग के संघर्ष को जिन विभिन्न मंज़िलों से होकर गुज़रता होता है, उनमें वे हमेशा और हर कहीं समूचे तौर पर आंदोलन के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

अतः कम्युनिस्ट, एक ओर, व्यवयार में हर देश की मज़दूर पार्टियों के सबसे आगे बढ़े हुए और कृतसंकल्प जुज़ होते हैं, ऐसा जुज़, जो और सभी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है; दूसरी ओर, सैद्धांतिक दृष्टि से उन्हें सर्वहारा के विशाल जनसमुदाय पर सर्वहारा आंदोलन के आगे बढ़ने के रास्ते, उसकी अवस्थाओं और उसके अंतिम सामान्य परिणामों की सुस्पष्ट समझ रखने की श्रेष्ठता प्राप्त है।

कम्यूनिस्टों का तात्कालिक लक्ष्य वही है, जो अन्य सभी सर्वहारा पार्टियों का है, अर्थात सर्वहारा का एक वर्ग के रूप में गठन, बुर्जुआ प्रभुत्व का तख़्ता उलटना, सर्वहारा द्वारा राजनीतिक सत्ता का जीता जाना।

कम्युनिस्टों के सैद्धांतिक निष्कर्ष इस या उस तथाकथित जगत-सुधारक द्वारा आविष्कृत अथवा अन्वेषित विचारों या सिद्धांतों पर किसी भी तरह आधारित नहीं हैं।

वे केवल चल रहे वर्ग संघर्ष से या हमारी आंखों के ही सामने हो रही ऐतिहासिक हलचल से उत्पन्न वास्तविक संबंधों को सामान्य शब्दों में व्यक्त करते हैं। विद्यामान संपत्ति-संबंधों का उन्मूलन कम्युनिज़्म की कोई लाक्षणिक विशेषता हरगिज़ नहीं है।

अतीत में सभी संपत्ति-संबंध ऐतिहासिक अवस्थाओं में परिवार्तन के परिणामस्वरूप निरंतर ऐतिहासिक परिवर्तन के अधीन रहे हैं।

उदाहरण के लिए, फ़्रांसीसी क्रांति ने बुर्जुआ स्वामित्व के हक़ में सामंती स्वामित्व का उन्मूलन कर दिया।

कम्युनिज़्म की लाक्षणिक विशेषता सामान्यतया स्वामित्व का उन्मूलन नहीं, बल्कि बुर्जुआ स्वामित्व का उन्मूलन है। लेकिन आधुनिक बुर्जुआ निजी स्वामित्व उत्पादों के उत्पादन तथा हस्तगतकरण की उस प्रणाली की अंतिम और पूर्णतम अभिव्यक्ति है, जो वर्ग विग्रहों पर और कुछ द्वारा बहुतों के शोषण पर आधारित है।

इस अर्थ में कम्युनिज़्म के सिद्धांत का एक अकेले वाक्य में समाहार किया जा सकता है : निजी स्वामित्व का उन्मूलन।

हम कम्यूनिस्टों पर आरोप लगाया गया है कि हम मनुष्य के संपत्ति को स्वयं अपनी मेहनत के फल के रूप में निजी तौर पर अर्जित करने के अधिकार का उन्मूलन करना चाहते हैं, जिस संपत्ति को समस्त वैयक्तिक स्वतंत्रता, क्रियाशीलता और स्वाधीनता का मूलाधार कहा जाता है।

सख़्त मेहनत से, स्वयं अर्जित, अपने श्रम से प्राप्त संपत्ति! आपका मतलब क्या छोटे दस्तकार और छोटे किसान की संपत्ति, स्वामित्व के उस रूप से है, जो बुर्जुआ रूप का पूर्वगामी था? उसके उन्मूलन की कोई ज़रूरत नहीं, उद्योग के विकास ने पहले ही उसको काफ़ी हद तक नष्ट कर दिया है और अब भी दिनोंदिन नष्ट करता जा रहा है।

या आपका मतलब आधुनिक बुर्जुआ निजी संपत्ति से है?

लेकिन क्या उजरती श्रम मज़दूर के लिए कोई संपत्ति पैदा करता है? हरगिज़ नहीं। वह तो पूंजी पैदा करता है, यानी ऐसी संपत्ति, जो उजरती श्रम का शोषण करती है और जिसके बढ़ने की शर्त ही यह है कि वह नये शोषण के लिए नये उजरती श्रम को पैदा करती जाये। अपने वर्तमान रूप में संपत्ति पूंजी और उजरती श्रम के विरोध पर आधारित है। आइये, इस विरोध के दोनों पहलुओं पर ग़ौर करें।

पूंजीपति होना केवल शुद्धतः व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि उत्पादन में एक सामाजिक हैसियत रखना है। पूंजी एक सामूहिक उत्पाद है, और केवल समाज के बहुत-से सदस्यों के संयुक्त कार्यकलाप से ही, बल्कि अंततोगत्वा समाज के सभी सदस्यों के संयुक्त कार्यकलाप से ही उसे गतिशील किया जा सकता है।

इस प्रकार, पूंजी निजी नहीं, एक सामाजिक शक्ति है।

इसलिए पूंजी को अगर सामान्य संपत्ति में, समाज के तमाम सदस्यों की संपत्ति में परिवर्तित कर दिया जाता है, तो इससे वैयक्तिक संपत्ति सामाजिक संपत्ति में नहीं बदल जाती। तब संपत्ति का केवल सामाजिक स्वरूप बदलता है। वह अपना वर्ग स्वरूप गंवा देती है।

आईये, अब उजरती श्रम को लें।

उजरती श्रम की औसत क़ीमत न्यूनतम मज़दूरि है, अर्थात निर्वाह साधनों की वह मात्रा, जो मज़दूर की हैसियत से मज़दूर के अस्तित्व मात्र को बनाये रखने के लिए एकदम जरूरी हो। इसलिए उजरती मज़दूर अपने श्रम से जो कुछ हस्तगत करता है, वह उसके अस्तित्व मात्र को बनाये रखने और पुनरुत्पादित करने के लिए ही काफ़ी होता है। हम श्रम के उत्पादों के इस निजी हस्तगतकरण का, मानव जीवन के अनुरक्षण तथा पुनरुत्पादन के लिए किये जानेवाले और ऐसी कोई बेशी, जिससे औरों के श्रम को मातहत किया जा सके, न छोड़नेवाले हस्तगतकरण का हरगिज़ उन्मूलन करना नहीं चाहते। हम सिर्फ़ जिसका ख़ात्मा करना चाहते हैं, वह है इस हस्तगतकरण का वह दयनीय स्वरूप, जिसके अधीन मज़दूर सिर्फ़ पूंजी को बढ़ाने के लिए ही ज़िंदा रहता है, और उसे उसी हद तक ज़िंदा रहने दिया जाता है कि जहां तक शासक वर्ग के हित इसकी मांग करते हैं।

बुर्जुआ समाज में जीवित श्रम संचित श्रम को बढ़ाने का साधन मात्र है। कम्यूनिस्ट समाज में संचित श्रम मज़दूर के अस्तित्व को व्यापक, संपन्न और संवर्धित करने का साधन मात्र है।

इस प्रकार, बुर्जुआ समाज में वर्तमान को अतीत शासित करता है; कम्युनिस्ट समाज में अतित को वर्तमान शासित करता है। बुर्जुआ समाज में पूंजी स्वतंत्र है और उसकी वैयक्तिकता होती है, किंतु जीवित व्यक्ति परतंत्र है और उसकी कोई वैयक्तिकता नहीं होती।

और इन अवस्थाओं के उन्मूलन को बुर्जुआ वैयक्तिकता और स्वतंत्रता का उन्मूलन कहता है। और ठीक ही तो है। वास्तव में, आशय बुर्जुआ वैयक्तिकता, बुर्जुआ स्वावलंबन और बुर्जुआ स्वतंत्रता का उन्मूलन करना ही है।

मौजूदा बुर्जुआ उत्पादन अवस्थाओं के अंतर्गत स्वतंत्रता का अर्थ है मुक्त व्यापार, मुक्त क्रय-विक्रय।

लेकिन अगर क्रय-विक्रय मिट जाता है, तो मुक्त क्रय-विक्रय भी मिट जाता है। हमारे बुर्जुआ जनों की मुक्त क्रय-विक्रय के बारे में इन बातों का, सामान्यतया स्वतंत्रता के बारे में उनकी तमाम अन्य "बड़ी-बड़ी बातों” का अगर कुछ मतलब है, तो सिर्फ़ मध्ययुग के सीमित क्रय-विक्रय के, उस समय के बंधनों में जकड़े हुए व्यापारियों के मुक़ाबले में ही हो सकता है; लेकिन क्रय-विक्रय तथा उत्पादन की बुर्जुआ अवस्थाओं ओर स्वयं बुर्जुआ वर्ग के कम्युनिस्ट ढंग के उन्मूलन के मुक़ाबले में उनका कोई मतलब नहीं है।

निजी स्वामित्व का अंत कर देने के हमारे इरादे से आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन आपके मौजूदा समाज में दस में से नौ आदमियों के लिए निजी संपत्ति का पहले ही ख़ात्मा हो चुका है; चंद लोगों के पास अगर निजी संपत्ति है, तो उसका एकमात्र कारण यही है कि दस में से उन नौ के पास वह नहीं है। इसलिए आप हमारे ख़िलाफ़ स्वामित्व के ऐसे रूप का अंत कर देने की इच्छा रखने का जुर्म लगाते हैं, जिसके अस्तित्व के लिए आवश्यक शर्त समाज के भारी बहुलांश की कैसी भी संपत्ति का न होना है।

संक्षेप में, आपका आरोप यह है कि हम आपके स्वामित्व का अंत कर देना चाहते हैं। बिलकुल यही बात है; हम ठीक यही करने की मंशा रखते हैं।

आपका कहना हे कि जिस क्षण से श्रम का पूंजी, द्रव्य अथवा किराये में, एक ऐसी सामाजिक शक्ति में, जिसे एकाधिकृत किया जा सकता है, रूपांतरण बंद हो जायागा, अर्थात जिस क्षण से वैयक्तिक स्वामित्व का बुर्जुआ स्वामित्व में, पूंजी में रूपांतरण बंद हो जायेगा, उसी क्षण से वैयक्तिकता का विलोप हो जायेगा।

इसलिए आपको यह स्वीकार करना होगा कि "व्यक्ति” का आपके लिए बुर्जुआ के अलावा, संपत्ति के मध्यवर्गीय स्वामी के अलावा किसी व्यक्ति से अर्थ नहीं है। इस व्यक्ति को तो वास्तव में रास्ते से हटा देना चाहिए, उसका होना असंभव बना दिया जाना चाहिए।

कम्युनिज़्म किसी भी आदमी को समाज के उत्पादों को हस्तगत करने की शक्ति से वंचित नहीं करता; वह केवल इस हस्तगतकरण के ज़रिये दूसरों के श्रम को वशीभूत करने की शक्ति से उसे वंचित करता है।

यह आपत्ति की गयी है कि निजी स्वामित्व का उन्मूलन किये जाने के साथ सारा काम-काज ठप हो जायेगा और सार्विक अकर्मण्यता छा जायेगी।

ऐसी हालत में तो बुर्जुआ समाज को निरी अकर्मण्यता के कारण न जाने कब का रसातल पहुंच जाना चाहिए था; क्योंकि उसके जो सदस्य काम करते हैं, वे कुछ नहीं प्राप्त करते, और जो प्राप्त करते हैं, वे काम नहीं करते। वास्तव में यह सारी आपत्ति इसी द्विरुक्ति की एक अभिव्यक्ति है कि अगर पूंजी नहीं रह जायेगी, तो उजरती श्रम भी नहीं रह जायेगा।

भौतिक उत्पादों के उत्पादन और हस्तगतकरण की कम्युनिस्ट प्रणाली के विरुद्ध जो-जो आपत्तियां की जाती हैं, वे ही बौद्धिक उत्पादों के उत्पादन और हस्तागतकरण की कम्युनिस्ट प्रणालियों के विरुद्ध भी की जाती हैं। जिस प्रकार बुर्जुआ के लिए वर्ग स्वामित्व का विलोपन स्वयं उत्पादन का ही विलोपन है, उसी प्रकार वर्ग संस्कृति का विलोपन उसके लिए समस्त संस्कृति के विलोपन के ही समान है।

वह संस्कृति, जिसके विनाश के बारे में वह विलाप करता है, भारी बहुलांश के लिए महज़ मशीन की तरह काम करने का प्रशिक्षण ही है।

लेकिन हमसे तब तक न उलझिये कि जब तक बुर्जुआ स्वामित्व के उन्मूलन के हमारे इरादे को आप आज़ादी, संस्कृति, क़ानून, आदि की अपनी बुर्जुआ धारणाओं के मापदंड से मापते हैं। आपके विचार स्वयं बुर्जुआ उत्पादन ओर बुर्जुआ स्वामित्व की अवस्थाओं की उपज मात्र हैं, ठीक जैसे आपका न्यायशास्त्र आपके वर्ग की इच्छा के अलावा और कुछ नहीं है, जिसे सबके लिए क़ानून में बदल दिया गया है, ऐसी इच्छा, जिसके तात्विक स्वरूप और दिशा का निर्धारण आपके वर्ग के अस्तित्व की आर्थिक अवस्थाओं द्वारा होता है।

वह स्वार्थपूर्ण भ्रम, जो आपको आपकी मौजूदा उत्पादन प्रणाली और स्वामित्व के रूप से उद्भूत होनेवाले सामाजिक रूपों को — उत्पादन के विकास में उत्पन्न और विलीन होनेवाले ऐतिहासिक संबंधों को—प्रकृति और तर्कबुद्धि के शाश्वत नियमों में रूपांतरित करने के लिए प्रेरित करता है, ऐसा भ्रम है, जिसके आप अपने हर पूर्ववर्ती शासक वर्ग के साथ सहभागी हैं। प्राचीन स्वामित्व के मामले में जिस चीज़ को आप स्पष्टता से देखते हैं, सामंती स्वामित्व के मामले में जिस चीज़ को आप स्वीकार करते हैं, उसे ख़ुद अपने बुर्जुआ स्वामित्व के मामले में मंजूर करना आपके लिए निश्चय ही वर्जित है।

परिवार का उन्मूलन! कम्युनिस्टों के इस कलंकपूर्ण प्रस्ताव से कट्टर से कट्टर आमूल परिवर्तनवादी भी भड़क उठते हैं।

मौजूदा परिवार, बुर्जुआ परिवार, किस बुनियाद पर आधारित है? पूंजी पर, निजी लाभ पर। अपने पूर्णतः विकसित रूप में इस तरह का परिवार केवल बुर्जुआ वर्ग के बीच पाया जाता है। लेकिन यह स्थिति अपना संपूरक सर्वहाराओं में परिवार के वस्तुतः अभाव और खुली वेश्यावृत्ति में पाती है।

अपने संपूरक के मिट जाने के साथ-साथ बुर्जूआ परिवार भी क़ुदरती तौर पर मिट जायेगा, और पूंजी के मिटने के साथ-साथ ये दोनों मिट जायेंगे।

क्या आप हमारे ऊपर यह आरोप लगाते हैं कि हम बच्चों का उनके माता-पिता द्वारा शोषण किया जाना बंद कर देना चाहते हैं? इस अपराध को हम स्वीकार करते हैं।

लेकिन आप कहेंगे कि घरेलू शिक्षा की सामाजिक शिक्षा से प्रतिस्थापना करके हम एक अत्यंत पवित्र संबंध को नष्ट कर देते हैं।

और आपकी शिक्षा! क्या वह भी सामाजिक नहीं है और उन सामाजिक अवस्थाओं से, जिनमें आप शिक्षा देते हैं, स्कूलों के ज़रिये समाज के, प्रत्यक्ष या परोक्ष, हस्तक्षेप, आदि से निर्धारित नहीं होती है? शिक्षा में समाज का हस्तक्षेप कम्युनिस्टों की ईजाद नहीं है; कम्युनिस्ट तो केवल इस हस्तक्षेप के स्वरूप को बदलना और शिक्षा का शासक वर्ग के प्रभाव से उद्धार करना चाहते हैं।

आधुनिक उद्योग की क्रिया द्वारा सर्वहाराओं में समस्त पारिवारिक संबंधों की धज्जियां उड़ने और उनके बच्चों के साधारण तिजारती चीज़ों और श्रम-उपकरणों में रूपांतरित होते जाने के साथ-साथ परिवार और शिक्षा तथा माता-पिता और बच्चों के पुनीत अन्योन्य संबंध के बारे में बुर्जुआ बकवास और भी अधिक घिनौनी बनती जाती है।

सारा बुर्जुआ वर्ग गला फाड़कर एक स्वर से चिल्ला उठता है—लेकिन तुम कम्युनिस्ट तो औरतों का समाजीकरण करा दोगे।

बुर्जुआ आपनी पत्नी को एक उत्पादनोपकरण के सिवा और कुछ नहीं समझता। उसने सुन रखा है कि उत्पादन उपकरणों का सामूहिक रूप में उपयोग होगा और, स्वभावतः, वह इसके अलावा और कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पाता कि सभी चीज़ों की तरह औरतें भी सभी के साझे की हो जायेंगी।

वह यह सोच भी नहीं सकता कि दरअसल मक़सद यह है किन औरतों की मात्र उत्पादन उपकरण होने की स्थिति का ख़ात्मा कर दिया जाये।

बाक़ी तो बात यह है कि हमारे बुर्जुआ के औरतों के समाजीकरण के ख़िलाफ, जो उसके दावे के मुताबिक़ कम्युनिस्टों द्वारा खुल्लमखुल्ला ओर आधिकारिक रूप में स्थापित किया जायेगा, सदाजारी आक्रोश से अधिक हास्यास्पद दूसरी और कोई चीज़ नहीं है। कम्युनिस्टों को स्त्रियों का समाजीकरण प्रचलित करने की कोई ज़रूरत नहीं है; उनकी यह स्थिति तो लगभग अनादि काल से चली आ रही है।

हमारे बुर्जुआ इसी से संतोष न करके कि वे अपने मज़दूरों की बहू-बेटियों का अपनी मरज़ी के मुताबिक़ इस्तेमाल कर सकते हैं, सामान्य वेश्याओं की तो बात ही क्या, एक दूसरे की बीवियों पर हाथ साफ़ करने में विशेष आनंद प्राप्त करते हैं।

बुर्जुआ विवाह वास्तव में साझे की पत्नियों की ही व्यवस्था है, इसलिए कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ अधिक से अधिक यही आरोप लगाया जा सकता है कि वे स्त्रियों के पाखंडपूर्वक छिपाये हुए समाजीकरण की जगह खुले तौर पर क़ानूनी समाजीकरण लाना चाहते हैं। बाक़ी तो यह बात अपने आप साफ़ है कि वर्तमान उत्पादन पद्धति के उन्मूलन के साथ-साथ इस पद्धति से उत्पन्न स्त्रियों के समाजीकरण का, अर्थात खुली और ख़ानगी, दोनों ही प्रकार की वेश्यावृत्ति का अनिवार्यतः उन्मूलन हो जायेगा।

इसके अलावा कम्युनिस्टों पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि वे देश और राष्ट्रीयता की भावना को मिटा देना चाहते हैं।

श्रमजीवियों का कोई देश नहीं है। जो उनके पास है ही नहीं, वह उनसे कैसे छीना जा सकता है? चूंकि सर्वहारा को सबसे पहले राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करना होगा, राष्ट्र का प्रधान वर्ग बन जाना होगा, अपने को राष्ट्र के रूप में गठित करना होगा, इसलिए इस हद तक वह स्वयं राष्ट्रीय है, गोकि इस शब्द के बुर्जुआ अर्थ में नहीं।

बुर्जुआ वर्ग के विकास, वणिज्य की स्वतंत्रता, विश्व बाजार और उत्पादन प्रणाली में तथा तदनुरूप जीवन की अवस्थाओं में एकरूपता के कारण जनगण के बीच राष्ट्रीय भेदभाव और विरोध दिन-दिन अधिकाधिक मिटते जाते हैं।

सर्वहारा का प्रभुत्व होने पर ये और भी तेज़ी से मिटेंगे। सर्वहारा के निस्तार की पहली शर्तों में एक यह है कि कम से कम अगुआ सभ्य देश मिलकर एक साथ क़दम उठायें।

जिस अनुपात में एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण का अंत किया जाता है, उसी अनुपात में एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण भी समाप्त कर दिया जायेगा। जिस अनुपात में एक राष्ट्र के भीतर वर्गों के बीच विरोध विलुप्त होता है, उसी अनुपात में राष्ट्रों का आपसी वैरभाव भी दूर हो जायेगा।

धार्मिक, दार्शनिक और सामान्यतः विचारधारात्मक दृष्टि से कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ जो आरोप लगाते जाते हैं, वे इस लायक़ नहीं हैं कि उन पर गंभीरता के साथ विचार किया जाये।

क्या यह समझने के लिए गहरी अंतर्दृष्टि की ज़रूरत है कि मनुष्य के विचार, मत और उसकी धारणाएं—एक शब्द में उसकी चेतना—उसके भौतिक अस्तित्व की अवस्थाओं, उसके सामाजिक संबंधों और सामाजिक जीवन के प्रत्येक परिवर्तन के साथ बदलती है?

विचारों का इतिहास इसके सिवा और क्या साबित करता है कि जिस अनुपात में भौतिक उत्पादक में परिवर्तन होता है, उसी अनुपात में बौद्धिक उत्पादन का स्वरूप परिवर्तित होता है? हर युग को शासित करनेवाले विचार सदा उसके शासक वर्ग के ही विचार रहे हैं।
 जब लोग समाज में क्रांति ला देनेवाले विचारों की बात करते हैं, तब वे केवल इसी तथ्य को व्यक्त करते हैं कि पुराने समाज के भीतर एक नये समाज के तत्व पैदा हो गये हैं और पुराने विचारों का विघटन अस्तित्व की पुरानी अवस्थाओं के विघटन के साथ क़दम मिलाकर चलता है।

जिस समय प्राचीन विश्व अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था, प्राचीन धर्मों को ईसाई धर्म ने अभिभूत कर लिया था। जब अठारहवीं शताब्दी में ईसाई विचार तर्कबुद्धिवादी विचारों के सामने धराशायी हुए, तब सामंती समाज ने तत्कालीन क्रांतिकारी बुर्जुआ वर्ग से अपनी मौत की लड़ाई लड़ी थी। धर्म-स्वातंत्र और अंतःकरण की स्वतंत्रता के विचार ज्ञान जगत में मुक्त प्रतिस्पर्धा के प्रभुत्व को ही व्यक्त करते थे।

कहा जायेगा कि "यह ठीक है कि ऐतिहासिक विकास के दौरान धार्मिक, नैतिक, दार्शनिक, राजनीतिक और विधिक विचार, निस्संदेह बदले हैं। लेकिन धर्म, नैनिकता, दर्शन, राजनीति और क़ानून तो सदा इस परिवर्तन से बचे रहे हैं।"

इसके अलावा, स्वतंत्रता, न्याय, आदि जैसे शाश्वत सत्य भी हैं, जो हर समाज की हर अवस्था में समान रूप से लागू होते हैं। लेकिन उन्हें नये आधार पर प्रतिष्ठित करने के बजाय कम्युनिज़्म सभी शाश्वत सत्यों को ख़त्म कर देता है, वह समस्त धर्म और समस्त नैतिकता को मिटा देता है; इसलिए कम्युनिज़्म विगत इतिहास के समस्त अनुभव के विपरीत आचरण करता है।"

इस आरोप का सारतत्व क्या है? अब तक अस्तित्वमान समस्त समाज का इतिहास वर्ग विरोधों के विकास का इतिहास रहा है, जिन्होंने भिन्न-भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न रूप धारण किया था।

पर उन्होंने चाहे जो भी रूप धारण किया हो, एक तथ्य पिछले सभी युगों में हर अवस्था में मौजूद रहा है—समाज के एक हिस्से द्वारा दूसरे हिस्से का शोषण। अतः, कोई आश्चर्य की बात नहीं कि विगत युगों की सामाजिक चेतना सारी विविधता और विभिन्नता प्रर्शित करने के बावजूद कुधेक समान्य रूपों या सामान्य विचारों के दायरे में गतिशील रही है, जो वर्ग विरोधों के पूर्ण रूप से विलुप्त होने के पहले पूरी तरह नहीं मिट सकते।

कम्युनिस्ट क्रांति पारंपरिक संपत्ति संबंधों से आमूलतम विच्छेद है; फिर इसमें आश्चर्य क्या कि इस क्रांति के विकास का अर्थ है पारंपरिक विचारों से आमूलतम संबंध-विच्छेद?

लेकिन कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ बुर्जुआ आरोंपों की कथा अब समाप्त की जाये।

ऊपर हम देख आये हैं कि मज़दूर वर्ग की क्रांति में पहला कंदम सर्वहारा हो उठाकर शासक वर्ग की स्थिति में लाना, जनवाद की लड़ाई को जीतना है।

सर्वहारा अपने राजनीतिक प्रभुत्व का प्रयोग बुर्जुआ वर्ग से धीरे-धीरे करके सारी पूंजी छीनने, उत्पादन के सभी उपकरणों को राज्य के, अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा के हाथों में केंद्रीकृत करने तथा उत्पादक शक्तियों की समग्रता में यथाशीघ्र वृद्धि करने के लिए करेगा।

निस्संदेह, आरंभ में यह काम सांपत्तिक अधिकारों पर, और बुर्जुआ उत्पादन की अवस्थाओं पर निरंकुश हमलों के बिना नहीं हो सकता; अतः, ऐसे उपायों के बिना नहीं हो सकता, जो आर्थिक दृष्टि से अपर्याप्त और अव्यावहारिक प्रतीत होते हैं, पर जो विकासक्रम में अपनी सीमा को लांघ जाते हैं, पुरानी सामाजिक व्यवस्था के और अधिक अतिक्रमण को अनिवार्य बना देते हैं और उत्पादन प्रणाली में पूर्णतया क्रांति लाने के साधन के रूप में अनिवार्य हैं।

निस्संदेह, भिन्न-भिन्न देशों में ये उपाय भिन्न-भिन्न होंगे।

फिर भी नीचे दिये हुए तरीक़े सबसे आगे बढ़े हुए देशों में आम तौर से लागू हो सकेंगे:

. भूसंपत्ति का उन्मूलन और समस्त किराया ज़मीन का सार्वजनिक प्रयोजन के लिए उपयोग।

. भारी आरोही अथवा क्रमवर्धी आय-कर।

. विरासत के समस्त अधिकार का उन्मूलन।

. सभी उत्प्रवासियों और विद्रोहियों की संपत्ति की ज़ब्ती।

. सरकारी पूंजी और पूर्ण एकाधिकार से संपन्न राष्ट्रीय बैंक द्वारा उधार का राज्य के हाथों में केंद्रीकरण।

. संचार तथा परिवहन के साधनों का राज्य के हाथों में केंद्रीकरण।

. राजकीय कारख़ानों और उत्पादन के उपकरणों का विस्तार करना; एक आम योजना के अनुसार परती ज़मीन को काश्त में लाना और ज़मीन का सामान्यतः सुधार करना।

. प्रत्येक के लिए समान श्रम-दायित्व, औद्योगिक सेनाओं की स्थापना, विशेषकर कृषि के लिए।

. कृषि का उद्योग के साथ संयोजन; देश में आबादी के अधिक सम-वितरण द्वारा शहर और देहात के बिच अंतर को धीरे-धीरे मिटाया जाना।
१०. सभी बच्चों की सार्वजनिक विद्यालयों में मुफ़्त शिक्षा। अपने वर्तमान रूप में कारखांनो में बच्चों के काम का अंत। शिक्षा और औद्योगिक उत्पादन का संयोजन, आदि, आदि।

विकासक्रम में जब वर्ग विभेद मिट जायेंगे और सारा उत्पादन पूरे राष्ट्र के एक विशाल संघ के हाथ में संकेंद्रित हो जायेगा, तब सार्वजनिक सत्ता अपना राजनीतिक स्वरूप खो देगी। राजनीतिक सत्ता, इस शब्द के असली अर्थ में, केवल एक वर्ग की दूसरे वर्ग का उत्पीड़न करने की संगठित शक्ति का नाम है। बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष के दौरान परिस्थितियों से मजबूर होकर सर्वहारा को अगर अपने को एक वर्ग के रूप में संगठित करना पड़ता है, अगर क्रांति के ज़रिये वह अपने को शासक वर्ग बना लेता है, और इस तरह पुरानी उत्पादन अवस्थाओं का बलपूर्वक अंग कर देता है, तो उन अवस्थाओं के साथ-साथ वह वर्ग विग्रहों के अस्तित्व की और आम तौर पर ख़ुद वर्गों के अस्तित्व की अवस्थाओं का ख़ात्मा कर देगा और, इस प्रकार, वह एक वर्ग के रूप में स्वयं अपने प्रभुत्व का भी अंत कर देगा।

तब वर्गों और वर्ग विग्रहों से बिंधे पुराने बुर्जुआ समाज के स्थान पर एक ऐसे संघ की स्थापना होगी, जिसमें व्यष्टि का स्वतंत्र विकास समष्टि के स्वतंत्र की शर्त होगा।