स्वतंत्र
नगारिक और दास,
पैट्रीशियन
(patrician)
और
प्लेबियन (plebeian),
सामंत
और भूदास,
गिल्ड-मास्टर(३)
और
कमेरा — संक्षेप में उत्पीड़क
और उत्पीड़ित एक दूसरे का
अविरत विरोध करते,
निरंतर
कभी छिपी,
तो
कभी प्रकट लड़ाई लड़ते आये
हैं,
ऐसी
लड़ाई,
जिसका
अंत हर बार या तो पूरे समाज के
क्रांतिकारी पुनर्गठन में,
या
संघर्षरत वर्गों आम बरबादी
में हुआ है।
इतिहास
के पूर्ववर्ती युगों में हम
प्राय:
हर
जगह विभिन्न सामाजिक क्षेणियों
में विभाजित समाज का एक पेचीदा
ढांच — सामाजिक क्षेणियों का
नानारूप सोपान पाते हैं।
प्राचीन रोम में पैट्रीशियन
(patricians),
नाइट
(knights),
प्लेबियन
(plebeians)
और
दास मिलते हैं;
मध्ययुग
में सामंत अधीनस्थ जागीरदार,
गिल्ड-मास्टर,
कमेरे,
भूदास
दिखाई देते हैं;
और
लगभग इन सभी वर्गों में फिर
गौण सोपान हैं।
आधुनिक
बुर्जुआ समाज ने,
जो
सामंती समाज के ध्वंसावशेष
से उपजा है,
वर्ग
विरोधों को ख़त्म नहीं कर दिया
है। उसने बस पुराने के स्थान
पर नये वर्गों,
पुरानी
के स्थान पर उत्पीड़न की नयी
अवस्थाओं और पुराने के स्थान
पर संघर्ष के नये रूपों को ही
स्थापित किया है।
तथापि,
दूसरे
युगों की तुलना में हमाते युग
का,
बुर्जुआ
युग का,
विशिष्ट
लक्षण यह है कि इसने वर्ग
विरोधों को सरल बना दिया है।
समूचे तौर पर समाज दो विशाल
शत्रु शिविरों में,
एक
दूसरे के ख़िलाफ खड़े दो विशाल
वर्गों—बुर्जुआ और सर्वहारा—में
अधिकाधिक विखंडित होता जा
रहा है।
मध्ययुग
के भूदासों से प्रारंभिक नगरों
के अधिकारपत्र प्राप्त बर्गर
पैदा हुए। इन्हीं बर्गरों
(burghers)
से
आगे चलकर बुर्जुआ के पहले
तत्वों का विकास हुआ।
अमरीका
की खोज और आशा अंतरीप होकर
समुद्री रास्ते के निकाले
जाने ने उदीयमान बुर्जुआ के
लिए नया क्षेत्र उन्मुक्त कर
दिया। ईस्ट इंडियन और चीनी
बाज़ारों,
अमरीका
के उपनिवेशन,
उपनिवेशों
के साथ व्यापार,
विनिमय-साथनों
और सामान्यतया जिंसों में
वृद्धि ने वाणिज्य,
नौपरिवहन
और उद्योग को अभूतपूर्व आवेग
और,
फलस्वरूप,
लड़खड़ाते
हुए सामंती समाझ में क्रांतिकारी
तत्व को तिव्र विकास का अवसर
प्रदान किया।
उद्योग
की
सामंती प्रणाली,
जिसमें
औद्योगिक उत्पादन पर संवृत
गिल्डों का एकाधिकार था,
अब
नये बाज़ारो की बढ़ती हुई
ज़रूरतों की पूर्ति के लिए
काफ़ी नहीं रह गयी। उसकी जगह
मैनुफ़ैक्चर ने ले ली।
गिल्ड-मास्टरों
को मैनुफ़ैक्चरिंग मध्यवर्ग
ने एक ओर धकेल दिया। अलग-अलग
समाहारी गिल्डों के बीच
श्रम-विभाजन
हर अकेली कार्यशाला के श्रम-विभाजन
के आगे लुप्त
हो गया।
इस
बीच बाज़ार बराबर बढ़ते गये
और मागं बराबर चढ़ती गयी। ऐसी
दशा में मैनुफ़ैक्चर भी नाकाफ़ी
सिद्ध होने लगा। तब भाप और
मशीन औद्योगिक उत्पादन में
क्रांति कर दी। मैनुफ़ैक्चर
का स्थान बड़े पैमाने के आधुनिक
उद्योग ने और औद्योगिक मध्यवर्ग
का स्थान औद्योगिक लखपतियों
ने,
पूरी
की पूरी औद्योगिक सेनाओं के
नायकों ने,
औधुनिक
बुर्जुआओं ने ले लिया।
आधुनिक
उद्योग ने विश्व बाज़ार की
स्थापना की है,
जिसके
लिए अमरीका की खोज ने पथ प्रशस्त
किया था। इस बाज़ार ने वाणिज्य,
नौपरिवहन
और स्थल संचार का ज़बरदस्त
विकास कर दिया है। अपनी बारी
में इस विकास ने उद्योग के
विस्तरण पर प्रभाव डाला;
और
जिस अनुपात में उद्योग,
वाणिज्य,
नौपरिवहन
और रेलों का प्रसार हुआ,
उसी
अनुपात में बुर्जुआ वर्ग का
विकास हुआ,
उसने
अपनी पूंजी को बढ़ाया और मध्ययुग
से चले आते प्रत्येक वर्ग को
पृष्ठभूमि में धकेल दिया।
चुनांचे,
हम
देखते हैं कि आधुनिक बुर्जुआ
वर्ग स्वयं किस तरह विकास की
एक लंबी प्रक्रिया
की,
उत्पादन
तथा विनिमय विधियों में
क्रांतियों के एक पूरे सिलसिले
की उपज है।
बुर्जुआ
वर्ग के विकास के हर पग के साथ
उस वर्ग की तदनुरूप राजनीतिक
उन्नति हुई। सामंती अभिजातों
के प्रभुत्व काल में एक उत्पीड़ित
वर्ग,
तो
मध्ययुगीन कम्यून(४)
में
एक सशस्त्र
और स्वशासी साहचर्य;
यहां
(जैसे
इटली और जर्मनी में)
स्वतंत्र
नगर गंणराज्य,
तो
वहां (जैसे
फ़्रांस
में)
राजतंत्र
की करदेय "तीसरी
क्षेणी”,
आगे
चलकर मैनुफ़ैक्चर के ज़माने
में,
अभिजात
वर्ग के ख़िलाफ़ अर्धसामंती
अथवा निरंकुश राजतंत्र
के लिए प्रतिसंतुलक का और,
वास्तव
में,
आम
तौर पर शक्तिशाली राजतंत्रों
की आधारशिला का काम करने के
बाद बुर्जुआ वर्ग ने अंततः
आधुनिक उद्योग और विश्व बाज़ार
की स्थापना के बाद से आधुनिक
प्रातिनिधिक राज्य में अपने
लिए अनन्य राजनीतिक प्रभुत्व
जित लिया है। आधुनिक राज्य
की कार्यपालिका पूरे बुर्जुआ
वर्ग के सामान्य मामलों का
संचालन करनेवाली समिति के
अलावा और कुछ नहीं है।
बुर्जुआ
वर्ग ने,
जहां
भी उसका पलड़ा भारी हुआ है,
सभी
सामंती,
पितृसत्तात्मक,
“सौम्य”
संबंधों का अंत कर दिया है।
उसने मनुष्य को अपने "स्वाभाविक
क्षेष्ठों” के साथ बांध रखनेवाले
नाना प्रकार के सामंती संबंधों
की निर्ममतापूर्वक र्धाज्जयां
उड़ा दी है और नग्न
आत्मस्वार्थ के,
“नक़द
पैसे-कौड़ी”
के हृदयशून्य
व्यवहार के सिवा मनूष्यों के
बीच और कोई दूसरा संबंध बाक़ी
नहीं रहने दिया है। धार्मिक
क्षध्दा के स्वर्गोपम आनंदातिरेक
को,
विरोचित
उत्साह और कूपमंडूकतापूर्ण
भावुकता को उसने स्वार्थमय
हिसाब-किताब
के बर्फ़ीले पानी में डुबा
दिया है। मनुष्य के वैयक्तिक
मूल्य को उसने विनिमय-मूल्य
में परिणत कर दिया है और अनगिनत
अलोप्य प्रदत्त तथा अर्जित
स्वाधीनताओं की जगह उस एक
अनैतिक स्वाधीनता की स्थापना
की है,
जिसे
मुक्त
व्यापार कहते है। एक शब्द में,
धार्मिक
और राजनीतिक भ्रांतियों के
आवरण के पीछे छिपे शोषण के
स्थान पर उसने नग्न,
निर्लज्ज,
प्रत्यक्ष
और पाशविक शोषण की स्थापना
की है।
जिन
पेशों के संबंध में अब तक लोगों
के मन में आदर और श्रद्धा की
भावना थी,
उन
सभी का प्रभामंडल बुर्जुआ
वर्ग ने छीन लिया है। डाक्टर,
वकील,
पुरोहित,
कवि
और वैज्ञानिक,
सभी
को उसने अपने वेतनभोगी उजरती
मज़दूर बना लिया है।
बुर्जुआ
वर्ग ने परिवार के ऊपर से
भावृकता के परदे को उतार फेंका
है और पारिवारिक संबंध को
मात्र एक धन-संबंध
में बदल दिया है।
बुर्जुआ
वर्ग ने यह प्रकट कर दिया है
कि यह क्योंकर हुआ कि मध्य-युग
में जीवनशक्ति के उस बर्बर
प्रदर्शन ने,
जिसकी
प्रतिक्रियावादी
लोग इतनी तारीफ़ करते है,
अपना
स्वाभाविक अनुपूरक अकर्मण्यता
और आलस्य में ही पाया। उसने
सबसे पहले दिखलाया कि मानव
की क्रियाशक्ति
क्या कुछ कर सकती है। उसने ऐसे
चमत्कारों का सर्जन किया है,
जो
मिस्र
के
पिरामिडों,
रोंम
की जल-प्रणाली
और गोथिक गिरजाघरों से कहीं
अधिक आशचर्यजनक हैं;
उसने
ऐसे-ऐसे
अभियानों का आयोजन किया है,
जिनके
आगे समस्त पूर्ववर्ति जातियों
के निष्क्रमण
और धर्मयुद्ध फीके पड़ जाते
है।
उत्पादन
उपकरणों में और,
फलतः,
उत्पादन
संबंधों में और उनके साथ समाज
के समस्त संबंधों में लगातार
क्रांति लाये बिना बुर्जुआ
वर्ग जीवित नहीं रह सकता। इसके
विपरीत,
सभी
पूर्वगामी औद्योगिक वर्गों
के अस्तित्व की पहली शर्त
पुरानी उत्पादन विधियों को
ज्यों का त्यों बनाये रखना
थी। उत्पादन का निरंतर क्रांतिकरण,
सभी
सामाजिक अवस्थाओं में लगातार
उथल-पुथल,
चिरंतन
अनिशिचतता और हलचल—ये चिज़ें
बुर्जुआ युग को सभी पूर्ववर्ति
युगों से अलग करती है। सभी
स्थिर और जड़ीभूत संबंध अपने
सहगामी प्राचीन तथा पूज्य
पूर्वग्रहों और मतों सहित
ध्वस्त हो जाते हैं,
और
सभी नवनिर्मित संबंध जड़ीभूत
होने के पहले ही पुराने पड़
जाते हैं। जो कुछ भी ठोस है,
वह
हवा में उड़ जाता है,
जो
कुछ पावन है,
वह
भ्रष्ट हो जाता है,
और
मनुष्य को आख़िरकार संजीदा
नज़र से जीवन की वास्तविक
हालतों को और मानव के परस्पर
संबंधों को देखने के लिए मजबूर
होना पड़ता है।
अपने
उन्पादों के लिए निरंतर
विस्तारमान बाज़ार की ज़रूरत
बुर्जुआओं का दुनिया भर में
पीछा करती है। उसे हर जगह घुसना,
हर
जगह पैर
जमाना,
हर
जगह संपर्क क़ायम करना होता
है।
विश्व
बाज़ार का अपने लाभ के लिए
इस्तेमाल कर बुर्जुआ वर्ग ने
उत्पादन और उपभोग को हर देश
में सार्वभौमिक स्वरूप दे
दिया है। प्रतिक्रियावादियों
को अत्यंत उद्विग्न
करते
हुए उसने उद्योग के पैरों के
निचे से उस राष्ट्रीय आधार
को खींच लिया है,
जिस
पर वह खड़ा था। पुराने जमे-जमाये
सभी राष्ट्रीय उद्योग या तो
नष्ट कर दिये गये हैं या हर
रोज़ नष्ट किये जा रहे हैं।
उनका स्थान नये उद्योग ले रहे
हैं,
जिनका
समारंभ सभी सभ्य राष्ट्रों
के लिए जीवन-मरण
का प्रश्न
बन
जाता है,
ऐसे
उद्योग,
जो
अब देशज कच्चे माल का नहीं,
बल्कि
दूरतम क्षेत्रों
से लाये कच्चे माल का उपयोग
करते हैं;
ऐसे
उद्योग,
जिनके
उत्पादों का उपभोग सिर्फ़
स्वदेश में ही नहीं,
बल्कि
पृथ्वी के हर कोने में किया
जाता है। पुरानी आवश्यकताओं
की जगह,
जो
स्वदेशी चीज़ों से तुष्ट हो
जाती थीं,
अब
नयी आवश्यकताएं पैदा हो गयी
हैं,
जिनकी
तुष्टि के लिए दुर देशों और
भूभागों के उत्पादों की ज़रूरत
होती है। पुरानी स्थानीय और
राष्ट्रीय पृथकता और आत्मनिर्भरता
का स्थान चौतरफ़ा संसर्ग ने,
राष्ट्रों
को सार्वभौम परस्पर-निर्भरता
ने ले लिया है। और भौतिक उत्पादन
की ही तरह बौद्धिक उत्पादन
के क्षेत्र में भी समान रूप
से यही बात है। अलग-अलग
राष्ट्रों की बौद्धिक कृतियां
सामान्य संपत्ति
बन
गयी हैं। राष्ट्रीय एकांगिता
और संकीर्णता अधिकाधिक असंभव
होती जा रही हैं,
और
नानसंख्य राष्ट्रीय तथा
स्थानीय साहित्यों से एक विश्व
साहित्य उदित हो रहा है।
सभी
उत्पादन उपकरणों में तीव्र
सुधार और अत्यंत सुकरकृत
संचार-साधनों
के ज़रिये बुर्जुआ वर्ग सभी,
यहां
तक कि बर्बर से बर्बर राष्ट्रों
को भी सभ्यता की परिधि में
खींच लाता है। उसके मालों के
सस्ते दाम
— यही
वह भारी तोपख़ाना है,
जिसकी
सहायता से वह सभी चीनी दीवारों
को ढहा देता है और विदेशियों
के प्रति बर्बर जातियों की
अत्यंत अदम्य घृणा को घुटने
टेकने के लिए मजबूर कर देता
है। वह प्रत्येक राष्ट्र को,
अन्यथा
विलुप्त
हो
जाने के भय से,
बुर्जुआ
उत्पादन प्रणाली अपनाने के
लिए मजबूर करता है;
वह
उन्हें इसके लिए मजबूर करता
है कि जिसे वह सभ्यता कहता है,
वे
उसका अपने बीच प्रचलन करें,
अर्थात
ख़ुद बुर्जुआ बन जायें। संक्षेप
में,
वह
अपने ही सांचे में ढली दुनिया
का निर्माण करता है।
बुर्जुआ
वर्ग ने देहात को शहर के प्रभुत्व
के अधीन कर दिया है। उसने विराट
नगर स्थापित कर दिये हैं,
देहाती
आबादी की तुलना में शहरी आबादी
में अत्यधिक वृद्धि कर दी है
और,
इस
प्रकार,
आबादी
के एक बड़े भाग को देहाती जीवन
की जड़ता से मुक्त
कर दिया है। जिस तरह से उसने
देहात को शहर का आक्षित बना
दिया है,
उसी
तरह उसने बर्बर और अर्धबर्बर
देशों को सभ्य देशों का,
कृषक
राष्ट्रों को बुर्जुआ राष्ट्रों
का,
पूरब
को पश्चिम का आश्रित बना दिया
है।
आबादी
की,
उत्पादन
साधनों और संपत्ति
की छितरी हुई अवस्था का बुर्जुआ
वर्ग अधिकाधिक अंत करता जाता
है। उसने आबादी को संकुलित
कर दिया है,
उत्पादन
साधनों को केंद्रीकृत कर दिया
है और संपत्ति
को चंद लिगों के हाथों में
संकेंद्रित कर दिया है। इसला
अनिवार्य परिणाम राजनीतिक
केंद्रीकरण था। अपने अलग
हितों,
क़ानूनों,
शासनों
और कर-प्रणालियों
के साथ पहले के स्वतंत्र अथवा
आपस में ढीले-ढाले
ढंग से ही संबद्ध प्रांत एक
शासन,
एक
विधि-संहिता,
एक
राष्ट्रीय वर्ग हित,
एक
सीमा और एक सीमाशुल्क दर के
साथ एक राष्ट्र में समूहबद्ध
हो गये हैं।
अपने
मुश्किल से सौ साल के शासनकाल
में बुर्जुआ वर्ग ने उससे अधिक
शक्तिशाली
और प्रचंड उत्पादक शक्तियां
उत्पन्न कर दी हैं कि जितनी
पिछली तमाम पीढ़ियों ने मिलकर
भी नहीं की थीं। प्राकृतिक
शाक्तियों का मनुष्य द्वारा
वशीभूत किया जाना,
मशीनें,
उद्योग
और कृषि में रसायन का उपयोग,
वाष्पचालित
जहाज़रानी,
रेलें,
विद्युत
तार-संप्रेषण,
पूरे
के पूरे महाद्वीपों का खेती
के लिए साफ़ किया जाना,
नदियों
का जहाज़रानी के उपयुक्त बनाया
जाना,
पूरी
आबादियों का मानो छूमंतर से
पैदा हो जाना — किस पूर्ववर्ति
सदी में यह सोचा भी जा सकता था
कि सामाजिक श्रम की गोद में
ऐसी उत्पादक शक्तियां सोयी
पड़ी हैं?
तो
हम देखते हैं:
उत्पादन
तथा विनिमय साधन,
जिनकी
बुनियाद पर बुर्जुआ वर्ग ने
अपने को स्थापित किया था,
सामंती
समाज में उत्पन्न हुए थे। इन
उत्पादन तथा विनिमय साधनों
के विकास की एक ख़ास मंजिल पर
वे अवस्थाएं,
जिनमें
सामंती समाज उत्पादन और विनिमय
करता था,
कृषि
और मैनुफ़ैक्चरिंग उद्योग
का सामंती संगठन,
एक
शब्द में सामंती सांपत्तिक
संबंध अब पहले ही विकसित उत्पादक
शक्तियों के अनुरूप नहीं रह
गये;
वे
नाना बेड़ियां बन गये। उन्हें
चकनाचूर करना आवश्यक हो गया
और उन्हें चकनाचूर कर दिया
गया।
उन्का
स्थान मुक्त प्रतियोगिता ने
और उसके साथ-साथ
उसके अनुरूप सामाजिक तथा
राजनीतिक ढांचे ने और बुर्जुआ
वर्ग के आर्थिक तथा राजनीतिक
प्रभुत्व ने ले लिया।
हमारी
आंखों के सामने भी ठीक इसी तरह
का आंदोलन चल रहा है। उत्पादन,
विनियम
और संपत्ति
के अपने संबंधों के साथ आधुनिक
बुर्जुआ समाज,
वह
समाज,
जिसने
जैसे तिलिस्म से ऐसे विराट
उत्पादन तथा विनियम साधनों
को सृज दिया है,
ऐसे
जादूगार की तरह है,
जिसने
अपने जादू से पाताल लोक की
शक्तियों को बुला लीया है,
पर
अब उन्हें वश में रकने में
असमर्थ है। पिछले कई दशकों
से उद्योग और वाणिज्य का इतिहास
सिर्फ़ आधुनिक उत्पादक शक्तियों
के आधुनिक उत्पादन अवस्थाओं
के ख़िलाफ़,
उन
सांपत्तिक संबंधों के ख़िलाफ़
विद्रोह का ही इतिहास है,
जो
बुर्जुआ वर्ग और उसके शासन
के अस्तित्व की शर्तें हैं।
यहां पर वाणिज्यिक संकटों का
उल्लेख काफ़ी है,
जो
अपने नियतकालिक आवर्तन द्वारा
समस्त बुर्जुआ समाज के अस्तित्व
को हर बार अधिकाधिक सख्त़ ढंग
से आज़माते हैं। इन संकटों
में न केवल विद्यमान
उत्पादों का ही,
बल्कि
पूर्वसर्जित उत्पादक शक्तियों
का भी एक बड़ा भाग समय-समय
पर नष्ट हो जाता है। सन संकटों
के समय एक महामारी फूट पड़ती
है,
जो
सभी पूर्ववर्ति युगों में एक
असंगति प्रतीत होती — अर्थात
अत्युत्पादन की महामारी।
समाज अचानक अपने आपको श्रणिक
बर्बरता की अवस्था में लौटा
हुआ पाता है;
लगता
है,
जैसे
किसी अकाल या सर्वनाशी विश्वयुद्ध
ने उसके सभी निर्वाह साधनों
की पूर्ति को एकबारगी ख़तम
कर दिया हो;
उद्योग
और वणिज्य नष्ट हो गये प्रतीत
होते हैं;
और
क्यों?
इसलिए
कि समाज में सभ्यता का,
निर्वाह
साधनों का,
उद्योग
और वाणिज्य का अतिशय हो गया
है। समाज को उपलब्य उत्पादक
शक्तियां बुर्जुआ संपत्ति
की अवस्थाओं के विकास का अब
संवर्धन नहीं करतीं;
इसके
विपरीत,
वे
इन अवस्थाओं के लिए,
जिन्होंने
उन्हें बांध रखा है,
अत्यधिक
प्रबल हो गयी हैं,
और
जैसे ही वे इन बंधनों पर पार
पाने लगती हैं कि वे सारे ही
बुर्जुआ समाज में अव्यवस्था
उत्पन्न कर देती हैं,
बुर्जआ
संपत्ति के अस्तित्व को ख़तरे
में डाल देती हैं। बुर्जुआ
समाज की अवस्थाएं उन्के द्वारा
उत्पादित संपत्ति को समाविष्ट
करने के लिए बहुत संकुचित हो
जाती हैं। और भला बुर्जुआ वर्ग
इन संकटों पर किस प्रकार पार
पाता है?
एक
ओर,
उत्पादक
शक्तियों की पूरी-पूरी
संहति के बलात विनाश द्वारा
और दुसरी ओर,
नये-नये
बाज़ारों पर क़ब्ज़े द्वारा
और साथ ही पुराने बाज़ारों
के और भी पूर्णतर दोहन द्वारा।
कहने का मतलब यह कि और भि व्यापक
और विनाशकारी संकटों के लिए
पथ प्रशस्त करके और इन संकटों
को रोकने के साधनों को घटाकर।
जिन
हथियारों से बुर्जुआ वर्ग ने
सामंतवाद को पराभूत किया था,
वे
अब स्वयं बुर्जुआ वर्ग के
विरुद्ध ही तन जाते हैं।
किंतु
बुर्जुआ वर्ग ने केवल ऐसे
हथियार ही नहीं गढ़े हैं,
जो
उसकी मृत्यु को लाते हैं,
बल्कि
उसने उन लोगों को भी पैदा किया
है। जिन्हें इन हथियारों को
इस्तेमाल करना है — आज के
मज़दूर,
सर्वहारा
वर्ग।
जिस
अनुपात में बुर्जुआ वर्ग,
अर्थात
पूंजी का विकास होता है,
उसी
अनुपात में सर्वहारा का,
आदुनिक
मज़दूरों के वर्ग का भी विकास
होता है,
जो
तभी तक ज़िंदा रह सकते हैं,
जब
तक उन्हें काम मिलता है,
और
उन्हें काम तभी तक मिलता है,
जब
तक उनका श्रम पूंजी को बढ़ाता
है। ये मज़दूर,
जिन्हें
अपने आपको अलग-अलग
बेचना होता है,
किसी
भी अन्य वाणिज्यिक वस्तु की
तरह ख़ुद भी जिंस हैं,
और
इसलिए वे होड़ के हर उतार-चढ़ाव
तथा बाज़ार की हर तेज़ी-मंदी
के शिकार होते हैं।
मशीनों
के व्यापक उपयोग तथा श्रम-विभाजन
के कारण सर्वहाराओं के काम
ने समस्त वैयक्तिक चरित्र
और,
परिणामस्वरूप,
मज़दूर
के लिए समस्त आकर्षण को गंवा
दिया है। मज़दूर मशीन का पुछल्ला
बन जाता है और उससे सिर्फ़
सबसे सरल,
सबसे
नीरस और सबसे आसानी से अर्जित
कौशल की अपेक्षा की जाती है।
अतः,
मज़दूर
की उत्पादन लागत लगभग पूर्णतः
उसके निर्वाह तथा वंश-वृद्धि
के लिए आवश्यक साधनों तक ही
सीमित है। लेकिन हर जिंस का
और इसलिए श्रम का भी दाम उसकी
उत्पादन लागत के बराबर होता
है। इसलिए जिस अनुपात में काम
की अरूचिकरता में वृद्धि होती
है,
उसी
अनुपात में मज़दूरी घटती है।
यही नहीं,
जिस
मात्रा में मशीनों का उपयोग
तथा श्रम-विभाजन
बढ़ता है,
उसी
मात्रा में श्रम का बोझ भी
बढ़ता है,
चाहे
यह कार्य-समय
बढ़ाने के ज़रिये हो,
या
निर्धारित समय में मज़दूरों
से अधिक काम लेने,
या
मशीन की बढ़ी हुई रफ़्तार,
आदि
के ज़रिये।
आधुनिक
उद्योग ने पितृसत्तात्मक
मास्टर
(patriarchal
master) की
छोटी-सी
कार्यशाला को औद्योगिक पूंजीपति
के विशाल कारख़ाने में बदल
दिया है। कारख़ाने में ठसे
झुंड के झुंड मज़दूरों को
सैनिकों की तरह संगठित किया
जाता है। औद्योगिक फ़ौज के
सिजाहियों की तरह वे बाक़ायदा
एक दरजावार तरतीब में बंटे
हूए अफ़सरों और जमादारों की
कमान में रखे जाते हैं। वे
सिर्फ़ बुर्जुआ वर्ग और बुर्जुआ
राज्य के ही दास नहीं हैं;
बल्कि
उन्हें घड़ी-घड़ी,
दिन-दिन
मशीन,
अधीक्षक
और सर्वोपरि ख़ुद बुर्जुआ
कारख़ानेदार द्वारा भी दासता
में लिया जाता है। यह निरंकुशता
जितना ही अधिक खुले तौर पर
मुनाफ़े को अपना लक्ष्य और
उद्देश्य घोषित करती है,
वह
उतना ही अधिक तुच्छ,
घृणित
और कटु होती है।
शारीरिक
श्रम में कुशलता और ताक़त की
ज़रूरत जितना ही कम होती जाती
है। अर्थात आधुनिक उद्योग
जितना ही अधिक विकसित होता
जाता है,
उतना
ही अधिक पुरूषों के श्रम का
स्थान स्त्रियों
का क्षम लेता जाता है। मज़दूर
वर्ग के संदर्भ में आयु और
लिंगभेद का कोई विशिष्ट सामाजिक
हेतु नहीं रह गया है। सभी श्रम
के उपकरण हैं — आयु और लिंगभेद
के अनुसार किसी पर ख़र्च कम
बैठता है,
तो
किसी पर ज़्यादा।
कारख़ानेदार
द्वारा मज़दूर के शोषण का
फ़िलहाल अंत हुआ नहीं,
और
उसे नक़द मज़दूरी मिली नहीं
कि फ़ौरन बुर्जुआ वर्ग के अन्य
अंशक — मकान-मालिक,
दुकानदार,
महाजन,
आदि
— उस पर टूट पड़ते हैं।
मध्यवर्ग
के निचले संस्तर-छोटे
व्यापारी,
छोटे
दूकानदार और सामान्यतः
किरायाजीवी,
दस्तकार
और किसान — ये सब धीरे-धीरे
सर्वहारा की क़तारों में लीन
होते जाते है,
अंशतः
इसलिए कि आधुनिक उद्योग जिस
पैमाने पर चलता है,
उसके
लिए उनकी छोटी पूंजी काफ़ी
नहीं होती और बड़े पूंजीपतियों
के साथ होड़ में वह डूब जाती
है,
और
अंशतः इसलिए कि उत्पादन के
नये-नये
तरीकों के निकल आने के कारण
उनके विशिष्टीकृत कौशल का
कोई मूल्य नहीं रह जाता है।
इस प्रकार,
सर्वहारा
की भरती आबादी के सभी वर्गों
से होती है।
सर्वहारा
विकास की विभिन्न मंज़िलों
से होकर गुजरता है। जन्मकाल
से ही बुर्जुआ वर्ग से उसका
संघर्ष शुरू हो जाता है। शुरू
में इक्के-दुक्के
मज़दूर लड़ते हैं,
फिर
एक कारख़ाने के मज़दूर मिलकर
लड़ते हैं और फिर एक पेशे के,
एक
इलाक़े के सब मज़दूर एक साथ
उस अलग बुर्जुआ से मोरचा लेते
हैं,
जो
उनका सीधे-सीधे
शोषण करता है। वे अपने हमले
उत्पादन की बुर्जुआ अवस्थाओं
के विरुद्ध नहीं,
बल्कि
ख़ुद उत्पादनोपकरणों के
विरुद्ध लक्षित करते हैं;
वे
अपनी मेहनत के साथ होड़ करनेवाले
आयातित सामानों को नष्ट कर
देते हैं,
मशीनों
को तोड़ देते हैं,
फ़ैक्टरियों
में आग लगा देते हैं,
वे
मध्ययुग के कारीगर की खोयी
हुई हैसियत को बलपूर्वक बहाल
करने की कोशिश करते हैं।
इस
मंज़िल में मज़दूर देश भर में
बिखरी असंबद्ध और अपनी ही आपसी
होड़ के कारण बंटी हुई भीड़
ही होते हैं। अगर कहीं एक साथ
होने से उनका अधिक ठोस समुदाय
बन भी जाता है,
तो
यह अभी ख़ुद उनके सक्रिय
एके का नहीं,
बल्कि
बुर्जुआ वर्ग के एके का फल
होता है,
जिसे
स्वयं अपने राजनीतिक उद्देश्यों
की प्राप्ति के लिए पूरे
सर्वहारा वर्ग को गतिशील करना
पड़ता है और वह ऐसा करने में
अभी कुछ समय तक समर्थ भी होता
है। इसलिए इस मंज़िल में
सर्वहारा अपने शत्रुओं से
नहीं,
बल्कि
अपने शत्रुओं के शत्रुओं से,
निरंकुश
राजतंत्र के अवशेषों,
भूस्वामियों,
ग़ैर-औद्योगिक
बुर्जुआओं,
निम्नबुर्जुआओं
से लड़ता है। इस प्रकार,
समस्त
ऐतिहासिक गतिविधि बुर्जुआ
वर्ग के हाथों में संकेंद्रित
रहती है;
इस
प्रकार हासिल की गयी हर जीत
बुर्जुआ वर्ग की जित होती है।
लेकिन
उद्योग के विकास के साथ-साथ
सर्वहारा की सिर्फ़ संख्या
में ही वृद्धि नहीं होती,
बल्कि
वह बड़ी-बड़ी
संहतियों में संकेंद्रित हो
जाता है,
उसकी
ताक़त बढ़ जाती है,
और
उसे अपनी इस ताक़त का अधिकाधिक
एहसास होने लगता है। मशीन जिस
अनुपात में श्रम के तमाम भेदों
को मिटाती जाती है और लगभग सभी
जगह मज़दूरी को एक ही निम्नस्तर
पर लाती जीवन जाती है,
उसी
अनुपात में सर्वहारा की पांतों
में विभिन्न हितों और जीवन
की अवस्थाओं का अधिकाधिक
समीकरण होता जाता है। बुर्जुआ
वर्ग में बढ़ती हुई प्रतियोगिता
और उससे पैदा होनेवाले व्यापारिक
संकटों के कारण मज़दूरों की
मज़दूरी और भी अस्थिर हो जाती
है। मशीनों में लगातार सुधार,
जिसमें
निरंतर तेज़ी आती जाती है,
मज़दूरों
की जीविका को अधिकाधिक अनिश्चित
बना देता है;
अलग-अलग
मज़दूरों और अलग-अलग
बुर्जुआओं के बिच टकराव अधिकाधिक
दो वर्गों के बिच टकरावों की
शक्ल अख़्तियार करते जाते
हैं। और तब मज़दूर बुर्जुआओं
के विरुद्ध अपने संगठन
(ट्रेड-यूनियनें)
बनाने
लगते हैं,
मज़दूरी
की दर को क़ायम रखने के लिए वे
संघबद्ध होते हैं;
समय-समय
पर होनेवाले इन विद्रोहों
के लिए पहले से तैयार रहने के
निमित्त
वे
स्थायी संघों की स्थापना करते
हैं। जहां-तहां
उनकी लड़ाई बलवों का रूप धारण
कर लेती है।
जब-तब
मज़दूरों की जीत भी होती है,
लेकिन
सिर्फ़ वक़्ती तौर पर। उनकी
लड़ाइयों का असली फल तात्कालिक
नतीजे में नहीं,
बल्कि
मज़दूरों की निरंतर बढ़ती
हुई एकता में है। आधुनिक उद्योग
द्वारा सर्जित सुधरे संचार-साधन,
जो
अलग-अलग
जगहों के मज़दूरों को एक दूसरे
के संपर्क में ला देते हैं,
एकता
के इस काम में सहायता देते
हैं। एक ही स्वरूप के अनगिनत
स्थानीय संघर्षों को एक
राष्ट्रीय वर्ग संघर्ष में
केंद्रीकृत करने के लिए बस
इसी संपर्क की ज़रूरत थी।
लेकिन प्रत्येक वर्ग संघर्ष
एक राजनीतिक संघर्ष होता है।
और उस एके को,
जिसे
हासिल करने के लिए अपनी शोचनीय
सड़कों के कारण मध्ययुग के
नगरवासियों को सादियां लगी
थीं,
रेलों
की बदौलत आधुनिक सर्वहारा
कुछ ही वर्षों में हासिल कर
लेते हैं।
सर्वहाराओं
का एक वर्ग में और फलतः एक
राजनीतिक पार्टि में यह संगठन
स्वयं मज़दूरों के बीच
प्रतिस्पर्धा के कारण फिर
निरंतर भंग होता रहता है।
लेकिन हर बार वह फिर उठ खड़ा
होता है — पहले से भी अधिक
मज़बूत,
दृढ़
और शक्तिशाली बनकर। स्वयं
बुर्जुआ वर्ग की भीतरी फूटों
का फ़ायदा उठाकर वह मज़दूरों
के विशेष हितों की क़ानूनी
तौर पर मंजूरी हासिल कर लेता
है। इंगलैंड में दस घंटे के
कार्य-दिवस
का क़ानून इसी तरह पारित हुआ
था।
पुराने
समाज के विभिन्न वर्गों के
बिच टकराव कुल मिलाकर सर्वहारा
के विकास की प्रक्रिया
को
अनेक रूपों में बढ़ावा ही देते
हैं। बुर्जुआ वर्ग अपने को
एक लगातार लड़ाई में फंसा पाता
है। पहले अभिजात वर्ग के
विरुद्ध,
बाद
में स्वयं बुर्जुआ वर्ग के
उन अंशकों के विरुद्ध,
जिनके
हित उद्योग की प्रगति के
प्रतिकूल हो जाते हैं,
और
विदेशों के बुर्जुआ वर्ग का
विरुद्ध तो निरंतर। इन तमाम
लड़ाइयों में वह अपने को
सर्वहारा की तरफ़ मुड़ने,
उससे
मदद मांगने और,
इस
प्रकार,
उसे
राजनीतिक रंगमंच में खींचने
के लिए मजबूर पाता है। अतः
बुर्जुआ वर्ग स्वयं ही सर्वहारा
को राजनीतिक तथा सामान्य
शिक्षा के अपने तत्व प्रदान
करता है,
अर्थात
सर्वहारा को बुर्जुआ वर्ग से
लड़ने के हथियार मुहैया करता
है।
आगे
चलकर,
जैसा
कि हम पहले ही देख चुके हैं,
उद्योग
की उन्नति के कारण शासक वर्गों
के पूरे के पूरे अंशक सर्वहाराओं
की अवस्थ़ा में पहुंच जाते
हैं,
या
कम से कम उनके अस्तित्व की
अवस्थाओं के लिए ख़तरा पैदा
हो जाता है। ये लोग भी सर्वहारा
को ज्ञानोद्दीप्ति
और प्रगति के नये तत्व प्रदान
करते हैं।
अंत
में,
जिन
दौरों में वर्ग संघर्ष निर्णायक
घड़ी के नज़दीक पहुंच जाता
है,
उनमें
शासक वर्ग के भीतर,
वस्तुतः
संपूर्ण पुराने समाज के भीतर
चल रही विघटन की प्रक्रिया
इतना प्रचंड और सुस्पष्ट
स्वरूप ग्रहण कर लेती है कि
शासक वर्ग का एक छोटा-सा
अंशक उससे अलग हो जाता है और
क्रांतिकारी वर्ग के साथ,
उस
वर्ग के साथ,
जिसके
हाथ में भविष्य होता है,
आ
मिलता है। इसलिए जिस तरह एक
पूर्ववर्ती युग में अभिजात
वर्ग का एक अंशक बुर्जुआ वर्ग
के पक्ष में चला गया था,
उस
तरह अब बुर्जुआ वर्ग का एक
हिस्सा,
और
विशेषकर बुर्जुआ विदारधारा-निरूपकों
का एक हिस्सा,
जिन्होंने
अपने आपको इतिहास की गति को
समग्ररूपेण सिद्धांततः समझने
के स्तर तक उठा लिया है,
सर्वहारा
के पक्ष में चला जाता है।
जो
भी वर्ग आज बुर्जुआ वर्ग के
मुक़ाबले पर खड़े हुए हैं,
उनमें
अकेला सर्वहारा ही वस्तुतः
क्रांतिकारी वर्ग है। आधुनिक
उद्योग के आगे अन्य वर्ग क्षय
हो जाते हैं और अंततः विलुप्त
हो जाते हैं;
सर्वहारा
उसका विशेष और अनिवार्य उत्पाद
है।
निम्न
मध्यवर्ग के लोग — छोटे
कारख़ानेदार,
दस्तकार,
छोटे
व्यापारी,
किसान
— ये सब बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़
इसके लिए लड़ते हैं कि मध्यवर्ग
के अंश के रूप में अपने अस्तित्व
को विनष्ट होने से बचा सकें।
इसलिए वे क्रांतिकारी नहीं,
रूढ़िवादी
हैं। इतना ही नहीं,
वे
प्रतिगामी हैं,
क्योंकि
वे इतिहास के चक्र
को पीछे की ओर घुमाने की कोशिश
करते हैं। अगर कहीं संयोग से
वे क्रांतिकारी हैं,
तो
सिर्फ़ इसलिए कि उनका बहुत
जल्द सर्वहारा की क़तारों
में चले जाना नियत है;
चुनांचे
वे अपने वर्तमान नहीं,
बल्कि
भविष्य के हितों की सक्षा करते
हैं;
अपने
दृष्टिबिंदु को वे इसलिए तज
देते हैं कि सर्वहारा के
दृष्टिबिंदु पर आ जाये।
“ख़तरनाक
वर्ग”,
समाज
का कचरा,
पुराने
समाज के निम्नतम
स्तरों में से निकला हुआ और
निष्क्रियता
के किचड़ में सड़ता हुआ यह
समूह जहां-तहां
सर्वहारा क्रांति की आंधी
में पड़कर आंदोलन में खिंच आ
सकता है,
लेकिन
उसके जीवन की अवस्थाएं उसे
प्रतिक्रियावादी षडूयंत्र
के भाड़े के टट्टू का काम करने
के लिए कहीं अधिक तैयार करती
हैं।
सर्वहारा
की मौजूदा अवस्थाओं में समूचे
तौर पर पुराने समाज की अवस्थाएं
पहले ही वस्तुतः विलुप्त हो
चुकी हैं। सर्वहारा के पास
कोई संपत्ति
नहीं
होती;
अपनी
पत्नी और अपने बच्चों के साथ
उसका जो संबंध है;
उसकी
बुर्जुआ पारिवारिक संबंधों
से अब कोई सामान्यता नहीं रह
गयी है;
आधुनिक
औद्योगिक श्रम ने,
पूंजी
के आधुनिक जूए ने,
जो
इंगलैंड,
फ़्रांस,
अमरीका
और जर्मनी,
सब
जगह एक-सा
ही है,
सर्वहारा
को राष्ट्रीय चरित्र के सभी
चिह्नों
से वंचित कर दिया है। क़ानून,
नैतिकता,
धर्म
— ये सब उसके लिए नाना बुर्जुआ
पूवग्रिह मात्र हैं,
जिसकी
ओट में इतने ही बुर्जुआ हित
घात में छिपे हुए हैं।
अपना
प्रभुत्व स्थापित करनेवाले
सभी पूर्ववर्ती वर्गों ने
समूचे तौर पर समाज को अपनी
हस्तगतकरण-प्रणाली
के अधीन करके अपनी पहले ही
अर्जित हैसियत को मज़बूत करने
की कोशिश की है। सर्वहारा अपनी
पुरानी हस्तगतकरण-प्रणाली
का और उसके साथ-साथ
पहले की हर अन्य हस्तगतकरण-प्रणाली
का नाश किये बिना समाज की
उत्पादक शक्तियों के स्वामी
नहीं बन सकते। उनके पास सुरक्षित
रखने और सुदृढ़ करने के लिए
अपना कुछ भी नहीं है;
उनका
जीवन-लक्ष्य
व्यक्तिगत संपत्ति की सभी
पुरानी प्रत्याभूतियों और
ज़मानतों को नष्ट कर देना है।
सभी
पूर्वगामी ऐतिहासिक आंदोलन
अल्पसंख्या के अथवा अल्पसंख्या
के हितों में आंदोलन थे।
सर्वहारा आंदोलन अपार बहुसंख्या
का,
अपार
बहूसंख्या के हित में चेतन
तथा स्वतंत्र आंदोलन है। हमारे
वर्तमान समाज का निम्नतम
संस्तर,
सर्वहारा
शासकीय समाज की तमाम ऊपरी
परतों को हवा में उड़ाये बिना
किसी प्रकार हिल तक नहीं सकता,
अपने
को उठा नहीं सकता।
बुर्जुआ
वर्ग के ख़िलाफ़ सर्वहारा का
संघर्ष यद्यपि अंतर्य की
दृष्टि से नहीं,
तथापि
रूप की दृष्टि से आरंभ में
राष्ट्रय संघर्ष होता है।
निस्संदेह,
हर
देश के सर्वहारा को सबसे पहले
अपने ही बुर्जुआ वर्ग से निबटना
चाहिए।
सर्वहारा
के विकास सबसे सामान्य चरणों
का वर्णन करते हुए हमने विद्यमान
समाज के भीतर न्यूनाधिक
प्रच्छन्न रूप से चलनेवाले
गृहयुद्ध का उसी बिंदु तक
चित्रण किया है,
जहां
वह युद्ध खुली क्रांति में
परिणत हो जाता है और जहां
बुर्जुआ वर्ग का बलात तख़्ता
पलट सर्वहारा के प्रभुत्व की
बुनियाद डालता है।
अभी
तक,
जैसा
कि हम पहले ही देख चुके हैं,
समाज
का हर रूप उत्पीड़क और उत्पीड़ित
वर्गों के विरोध पर आधारित
रहा है। लेकिन किसी भी वर्ग
का उत्पीड़न करने के लिए कुछेक
अवस्थाएं सुनिश्चित (assure)
करना
आवश्यक है,
जिनमें
वह कम से कम अपने दासवत अस्तित्व
को बनाये रख सके। भूदासता के
यूग में भूदास ने अपने को कम्यून
के सदस्य की स्थिति तक उठा
लिया,
ठीक
जैसे निम्नबुर्जुआ सामंती
निरंकुशता के जूए के निचे
बुर्जुआ में विकसित होने में
कामयाब हो गया था। इसके विपरीत,
आधुनिक
मज़दूर उद्योग की प्रगति के
साथ ऊपर इठने के बजाय स्वयं
अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए
आवश्यक अवस्थोओं के स्तर
अधिकाधिक नीचे ही गिरता है।
वह कंगाल हो जाता है और कंगाली
आबादी और दौलत से भी ज़्यादा
तेज़ी से बढ़ती है। और यहां
यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि
बुर्जुआ वर्ग अब समाज में शासक
वर्ग होने और समाज पर अपने
अस्तित्व की अवश्थाओं को एक
अभिभावी नियम के रूप में लादने
के अयोग्य है। वह शासन करने
के अयोग्य है,
क्योंकि
वह अपने दास का अपनी दासता में
अस्तित्व सुनिश्चित
करने में अक्षम है,
क्योंकि
वह उसका ऐसी स्थिति में गिरना
नहीं रोक सकता कि जब उसे दास
का पेट भरना पड़ता है,
बजाय
दास से उसका पेट भरे। समाज इस
बुर्जुआ वर्ग के अधीन अब और
नहीं रह सकता,
दूसरे
शब्दों में,
उसका
अस्तित्व अब समाज से मेल नहीं
खाता।
बुर्जुआ
वर्ग के अस्तित्व और प्रभुत्व
की शर्त पूंजी का निर्माण और
वृद्धि
है;
और
पूंजी की शर्त है उजरती श्रम।
उजरती श्रम पूर्णतया मज़दूरों
के बिच प्रतिस्पर्धा पर निर्भर
है। उद्योग की उन्नति,
बुर्जुआ
वर्ग जिसका अनभिप्रेत संवर्धक
है,
प्रतिस्पर्धा
से जनित मज़दूरों के अलगाव
की संसर्ग से जनित उनके
क्रांतिकारी एके से प्रतिस्थापना
कर देती है। इस तरह,
आधुनिक
उद्योग का विकास बुर्जुआ वर्ग
के पैरों के तले से उस बुनियाद
को ही खिसका देना है,
जिस
पर वह उत्पादों को उत्पादित
और हस्तगत करता है। अतः,
बर्जुआ
वर्ग सर्वोपरि अपनी कंब्र
खोदनेवालों को ही पैदा करता
है। उसका पतन और सर्वहारा की
विजय,
दोनों
समान रूप से अवश्यंभावी हैं।
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फ़्रांस
में नवोदित नगरों ने अपने
सामंती प्रभुओं और मालिकों
से स्थानीय स्वशासन और "तृतीय
श्रेणी” के रूप में राजनीतिक
अधिकार जीतने के भी पहले
"कम्यून”
का नाम ग्रहण कर लिया था। यहां,
सामान्यतया,
बुर्जुआ
वर्ग के आर्थिक विकास के संबंध
में इंगलैंड को और राजनीतिक
विकास के संबंध में फ़्रांस
को लाक्षणिक देश माना गया है।
[१८८८
के अंग्रेज़ी संस्करण में
एगेल्स की टिप्पणी।]
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* बुर्जुआ
से मतलभ आधुनिक पूंजीपति वर्ग
से,
अर्थात
सामाजिक उत्पादन के साधनों
के स्वामियों,
उजरती
श्रम का उपयोग करनेवालों से
है।
सर्वहारा
से मतलब आधुनिक उजरती मज़दूरों
से है,
जिनके
पास उत्पादन का स्वयं अपना
कोई साधन नहीं होता,
इसलिए
जो जीवित रहने के लिए अपनी
श्रम-शक्ति
बेचने को विवश होते हैं। [१८८८
के अंग्रेज़ी संस्करण में
एंगेल्स की टिप्पणी।]
२.
अर्थात
समस्त लिपिबद्ध
इतिहास। १८४७ में समाज का
पूर्व-इतिहास,
अर्थात
लिखित इतिहास के पहले का सामाजिक
संगठन,
सर्वथा
अज्ञात था। उसके बाद हैक्स्टहाउज़ेन
(August
von Haxthausen) ने
रूस में भूमि के सामुदायिक
स्वामित्व का पता लगाया;
मोरेर
ने सिद्ध किया कि यही वह सामाजिक
आधार था,
जिससे
सभी ट़यूटन
जातियों ने इतिहास में पदार्पण
किया,
और
धीरे-धीरे
यह प्रकट हुआ कि ग्रम-समुदाय
ही भारत से लेकर आयरलैंड तक
हर जगह समाज का आदि रूप था या
रहा होगा। इस आदिम कम्युनिस्ट
समाज के आंतरिक संगठन का अपने
ठेठ रूप में स्पष्टीकरण मोर्गन
की गोत्र के असली स्वरूप और
क़बीले के साथ उसके वास्तविक
संबंध की महती खोज द्वारा किया
गया। इस आदिम समुदाय के विघटन
के साथ समाज अलग-अलग
और अंततः विरोधी वर्गों में
विभेदित होने लगता है। मैंने
अपनी पुस्तक The
Origin of the Family, Private Property, and the State, second
edition, Stuttgart, 1886 में
इन ग्राम-समुदायों
के विघटन की प्रक्रिया
पर
नज़र दौड़ाने की कोशिश की है।
[१८८८
के अंग्रेज़ी संस्करण में
एगेल्स की टिप्पणी]
३.
गिल्ड-मास्टर
से मतलब गिल्ड के अध्यक्ष से
नहीं,
उसके
पूर्ण अधीकारप्राप्त सदस्य
से है,
जिसे
गिल्ड के भीतर मास्टर का स्थान
प्राप्त था। [१८८८
के अंग्रेज़ी संस्करण में
एगेल्स की टिप्पणी।]
४.
इटली
और फ़्रांस के नगरवासियों ने
अपने नगर समुदायों को,
सामंती
प्रभुओं से स्वशासन के अपने
प्रारंभिक आधिकारों को ख़रीद
लेने या छीन लेने के बाद,
यही
नाम दिया था। [१८९०
के जर्मन संस्करण में एगेल्स
की टिप्पणी।]